मेरे चाहने वालो की नज्र

by sksaini4 on July 04, 2011, 04:23:45 PM
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sksaini4
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समय  की  आग  में  जो भी जला है |
उसीकी  आँख  में   इक  ज़लज़ला है ||

समय  आख़िर  किसी  का कब टला है ?
यही जीवन  मरण  का   सिलसिला है ||

हमारा   मान   लेने  पर   तुला   है |
कहाँ  का  दूध  का तू भी  धुला   है  ?

परिंदा    आसमाँ   में  उड़  चला  है |
शिकारी  साज़िशों   में   मुब्तला  है ||

तुम्हारे शहर   के  अमृत   से अच्छा |
हमारे   गावँ   का  पानी  भला  है ||

जो  दिल  से काम लेते  हैं उन्हें  तो |
सदा    ही  भावनाओं  ने  छला है ||

ख़ुदा  क्या  ख़ुद  को भी मैं भूल बैठा |
अरे  ये  इश्क़  देखो   क्या बला है ||

चुराके    दिल   दिखाओ    पारसाई |  
हमें  बस  आपसे  ये  ही गिला  है ||  

मेरी   बन्दूक   हो   कांधा  तुम्हारा |
यही  तो  आज  जीने  की कला है ||

वफ़ा  के  नाम   पर हम जान दे दें |
हमें  तो  ये  विरासत  में मिला है ||

मुसलसल लहर    टकराती  है  देखो |
नहीं  साहिल  हिलाए  से   हिला है ||

मेरा  तो  नाम  तक  भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों  से क़ाफ़िर  जा मिला है ||

                          डा० सुरेन्द्र सैनी  


लोगों   से    तू    चाहे  परदादारी रख |
मुझसे   थोड़ी  सी  तो  आपसदारी रख ||

लीक पे  चलना  तो दुनिया  की आदत है |
अपनी कुछ  बातें  दुनिया से न्यारी  रख ||

जिसके  घर  कल  पूरी बोतल  पी आया |
उसके  ग़म  में भी कुछ  हिस्सेदारी रख ||

मुझको    मेरी   तन्हाईं  में  जीने  दे |
ले  तू  अपने पास ये दुनिया सारी रख ||

हिंदी  उर्दू   के   चक्कर में मत पड़ना |
दिल   के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||

माना  की  महबूब  रूठ कर चला गया |
तू  भी  अपने  अंदर कुछ ख़ुद्दारी रख ||

घायल हों जज़्बात कभी तो मत   डरना |
तू अपनी  चाहत  का पलड़ा भारी रख ||

हो    हंगामा कोई इससे   पहले   ही |
मैख़ाने   से   उठने   की तैयारी रख ||

                                डा० सुरेन्द्र सैनी

कहने   पर  आमादा  है  कुछ  सुनने  पर  आमादा  है |
जैसे  तैसे  मुझसे  वो  बस  लड़ने   पर आमादा   है ||

क्या तेरा घर क्या  मेरा घर इक   दिन तो  छीन जायेगा ?
फिर  क्यूँ  इस  बेगाने  घर में रहने  पर   आमादा है ||

डरता  हूँ  यें   घर  की  बातें दुनिया  वाले  सुन  लेगें |
पर  छोटा  बच्चा सारा सच  कहने  पर   आमादा   है ||

घर  की  पहली  शादी  के  इस मस्ती वाले  आलम  में |
दादी  क्या  परदादी  तक भी नचने   पर   आमादा  है ||

मेरा  क़ातिल  घर के  अन्दर छत से दाख़िल  क्यूँ  होगा ?
जब  घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने   पर   आमादा   है ||

                                           डा० सुरेन्द्र सैनी

साज़िश  की  गई ड्राई डे की अफ़वाहें   फैलाने में |
साक़ी  भी  है मीना भी है सब  कुछ मैख़ाने में ||

दीवाने  की  कैसी  ज़िद है जीना है तो  पीना है |
दीवाना  तो  दीवाना  है क्या  आये समझाने में ?

महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर  बाँटूगा |
साक़ी  बस  थोड़ी  ही  देना  तू मेरे पैमाने में ||

बेचारे  रिंदों   की  नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े   पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||

अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा  तन  थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||

                                   डा० सुरेन्द्र सैनी

अपनी  ज़िद  पर  अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच    रस्ते   खड़े   हुए हैं क्यूँ ?

हमने मागां  तो  कुछ  नहीं उनसे |
उनके   तेवर   चढ़े   हुए हैं क्यूँ ?

खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन   इतने   सड़े  हुए हैं क्यूँ ?

आप  आदी हैं छोटी   बातों   के |
यूँ ही  इतने  बड़े   हुए  हैं क्यूँ ?

जिनको आग़ाज  नया  करना  है |
वो  ज़मीं  पर पड़े  हुए हैं  क्यूँ ?

                             डा० सुरेन्द्र सैनी

जोश  में  आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका  करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||

धूप में  तप  कर हमारा तन  तो लोहा हो गया |
मोम  सा  है तन तुम्हारा छाँव में  बैठा  करो ||

मानता हूँ ज़ुल्म ढाना  आपकी  फ़ितरत   में है |
तुम गिरेबाँ में भी  अपने  झांक कर देखा करो ||

चापलूसों   से   घिरे   रहना सदा  जायज़ नहीं |
साफगो  लोगों  से भी  मिलने कभी आया करो ||

पहले  छेड़ा  आपने  और  हमने छेड़ा चिढ गए |
ये  कहाँ  की  है  शराफ़त  सोच कर छेड़ा करो ?

                                 डा० सुरेन्द्र सैनी
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«Reply #1 on: July 05, 2011, 04:22:37 AM »
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समय  की  आग  में  जो भी जला है |
उसीकी  आँख  में   इक  ज़लज़ला है ||

समय  आख़िर  किसी  का कब टला है ?
यही जीवन  मरण  का   सिलसिला है ||

हमारा   मान   लेने  पर   तुला   है |
कहाँ  का  दूध  का तू भी  धुला   है  ?

परिंदा    आसमाँ   में  उड़  चला  है |
शिकारी  साज़िशों   में   मुब्तला  है ||

तुम्हारे शहर   के  अमृत   से अच्छा |
हमारे   गावँ   का  पानी  भला  है ||

जो  दिल  से काम लेते  हैं उन्हें  तो |
सदा    ही  भावनाओं  ने  छला है ||

ख़ुदा  क्या  ख़ुद  को भी मैं भूल बैठा |
अरे  ये  इश्क़  देखो   क्या बला है ||

चुराके    दिल   दिखाओ    पारसाई | 
हमें  बस  आपसे  ये  ही गिला  है || 

मेरी   बन्दूक   हो   कांधा  तुम्हारा |
यही  तो  आज  जीने  की कला है ||

वफ़ा  के  नाम   पर हम जान दे दें |
हमें  तो  ये  विरासत  में मिला है ||

मुसलसल लहर    टकराती  है  देखो |
नहीं  साहिल  हिलाए  से   हिला है ||

मेरा  तो  नाम  तक  भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों  से क़ाफ़िर  जा मिला है ||

                          डा० सुरेन्द्र सैनी 


लोगों   से    तू    चाहे  परदादारी रख |
मुझसे   थोड़ी  सी  तो  आपसदारी रख ||

लीक पे  चलना  तो दुनिया  की आदत है |
अपनी कुछ  बातें  दुनिया से न्यारी  रख ||

जिसके  घर  कल  पूरी बोतल  पी आया |
उसके  ग़म  में भी कुछ  हिस्सेदारी रख ||

मुझको    मेरी   तन्हाईं  में  जीने  दे |
ले  तू  अपने पास ये दुनिया सारी रख ||

हिंदी  उर्दू   के   चक्कर में मत पड़ना |
दिल   के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||

माना  की  महबूब  रूठ कर चला गया |
तू  भी  अपने  अंदर कुछ ख़ुद्दारी रख ||

घायल हों जज़्बात कभी तो मत   डरना |
तू अपनी  चाहत  का पलड़ा भारी रख ||

हो    हंगामा कोई इससे   पहले   ही |
मैख़ाने   से   उठने   की तैयारी रख ||

                                डा० सुरेन्द्र सैनी

कहने   पर  आमादा  है  कुछ  सुनने  पर  आमादा  है |
जैसे  तैसे  मुझसे  वो  बस  लड़ने   पर आमादा   है ||

क्या तेरा घर क्या  मेरा घर इक   दिन तो  छीन जायेगा ?
फिर  क्यूँ  इस  बेगाने  घर में रहने  पर   आमादा है ||

डरता  हूँ  यें   घर  की  बातें दुनिया  वाले  सुन  लेगें |
पर  छोटा  बच्चा सारा सच  कहने  पर   आमादा   है ||

घर  की  पहली  शादी  के  इस मस्ती वाले  आलम  में |
दादी  क्या  परदादी  तक भी नचने   पर   आमादा  है ||

मेरा  क़ातिल  घर के  अन्दर छत से दाख़िल  क्यूँ  होगा ?
जब  घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने   पर   आमादा   है ||

                                           डा० सुरेन्द्र सैनी

साज़िश  की  गई ड्राई डे की अफ़वाहें   फैलाने में |
साक़ी  भी  है मीना भी है सब  कुछ मैख़ाने में ||

दीवाने  की  कैसी  ज़िद है जीना है तो  पीना है |
दीवाना  तो  दीवाना  है क्या  आये समझाने में ?

महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर  बाँटूगा |
साक़ी  बस  थोड़ी  ही  देना  तू मेरे पैमाने में ||

बेचारे  रिंदों   की  नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े   पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||

अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा  तन  थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||

                                   डा० सुरेन्द्र सैनी

अपनी  ज़िद  पर  अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच    रस्ते   खड़े   हुए हैं क्यूँ ?

हमने मागां  तो  कुछ  नहीं उनसे |
उनके   तेवर   चढ़े   हुए हैं क्यूँ ?

खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन   इतने   सड़े  हुए हैं क्यूँ ?

आप  आदी हैं छोटी   बातों   के |
यूँ ही  इतने  बड़े   हुए  हैं क्यूँ ?

जिनको आग़ाज  नया  करना  है |
वो  ज़मीं  पर पड़े  हुए हैं  क्यूँ ?

                             डा० सुरेन्द्र सैनी

जोश  में  आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका  करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||

धूप में  तप  कर हमारा तन  तो लोहा हो गया |
मोम  सा  है तन तुम्हारा छाँव में  बैठा  करो ||

मानता हूँ ज़ुल्म ढाना  आपकी  फ़ितरत   में है |
तुम गिरेबाँ में भी  अपने  झांक कर देखा करो ||

चापलूसों   से   घिरे   रहना सदा  जायज़ नहीं |
साफगो  लोगों  से भी  मिलने कभी आया करो ||

पहले  छेड़ा  आपने  और  हमने छेड़ा चिढ गए |
ये  कहाँ  की  है  शराफ़त  सोच कर छेड़ा करो ?

                                 डा० सुरेन्द्र सैनी
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khujli
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«Reply #2 on: July 05, 2011, 05:54:53 AM »
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समय  की  आग  में  जो भी जला है |
उसीकी  आँख  में   इक  ज़लज़ला है ||

समय  आख़िर  किसी  का कब टला है ?
यही जीवन  मरण  का   सिलसिला है ||

हमारा   मान   लेने  पर   तुला   है |
कहाँ  का  दूध  का तू भी  धुला   है  ?

परिंदा    आसमाँ   में  उड़  चला  है |
शिकारी  साज़िशों   में   मुब्तला  है ||

तुम्हारे शहर   के  अमृत   से अच्छा |
हमारे   गावँ   का  पानी  भला  है ||

जो  दिल  से काम लेते  हैं उन्हें  तो |
सदा    ही  भावनाओं  ने  छला है ||

ख़ुदा  क्या  ख़ुद  को भी मैं भूल बैठा |
अरे  ये  इश्क़  देखो   क्या बला है ||

चुराके    दिल   दिखाओ    पारसाई | 
हमें  बस  आपसे  ये  ही गिला  है || 

मेरी   बन्दूक   हो   कांधा  तुम्हारा |
यही  तो  आज  जीने  की कला है ||

वफ़ा  के  नाम   पर हम जान दे दें |
हमें  तो  ये  विरासत  में मिला है ||

मुसलसल लहर    टकराती  है  देखो |
नहीं  साहिल  हिलाए  से   हिला है ||

मेरा  तो  नाम  तक  भी भूल बैठा |
मगर ग़ैरों  से क़ाफ़िर  जा मिला है ||

                          डा० सुरेन्द्र सैनी 


लोगों   से    तू    चाहे  परदादारी रख |
मुझसे   थोड़ी  सी  तो  आपसदारी रख ||

लीक पे  चलना  तो दुनिया  की आदत है |
अपनी कुछ  बातें  दुनिया से न्यारी  रख ||

जिसके  घर  कल  पूरी बोतल  पी आया |
उसके  ग़म  में भी कुछ  हिस्सेदारी रख ||

मुझको    मेरी   तन्हाईं  में  जीने  दे |
ले  तू  अपने पास ये दुनिया सारी रख ||

हिंदी  उर्दू   के   चक्कर में मत पड़ना |
दिल   के यूँ जज़्बात सुनाना जारी रख ||

माना  की  महबूब  रूठ कर चला गया |
तू  भी  अपने  अंदर कुछ ख़ुद्दारी रख ||

घायल हों जज़्बात कभी तो मत   डरना |
तू अपनी  चाहत  का पलड़ा भारी रख ||

हो    हंगामा कोई इससे   पहले   ही |
मैख़ाने   से   उठने   की तैयारी रख ||

                                डा० सुरेन्द्र सैनी

कहने   पर  आमादा  है  कुछ  सुनने  पर  आमादा  है |
जैसे  तैसे  मुझसे  वो  बस  लड़ने   पर आमादा   है ||

क्या तेरा घर क्या  मेरा घर इक   दिन तो  छीन जायेगा ?
फिर  क्यूँ  इस  बेगाने  घर में रहने  पर   आमादा है ||

डरता  हूँ  यें   घर  की  बातें दुनिया  वाले  सुन  लेगें |
पर  छोटा  बच्चा सारा सच  कहने  पर   आमादा   है ||

घर  की  पहली  शादी  के  इस मस्ती वाले  आलम  में |
दादी  क्या  परदादी  तक भी नचने   पर   आमादा  है ||

मेरा  क़ातिल  घर के  अन्दर छत से दाख़िल  क्यूँ  होगा ?
जब  घायल दरवाज़ा ख़ुद ही खुलने   पर   आमादा   है ||

                                           डा० सुरेन्द्र सैनी

साज़िश  की  गई ड्राई डे की अफ़वाहें   फैलाने में |
साक़ी  भी  है मीना भी है सब  कुछ मैख़ाने में ||

दीवाने  की  कैसी  ज़िद है जीना है तो  पीना है |
दीवाना  तो  दीवाना  है क्या  आये समझाने में ?

महगांई के मारों का ग़म मैं भी मिल कर  बाँटूगा |
साक़ी  बस  थोड़ी  ही  देना  तू मेरे पैमाने में ||

बेचारे  रिंदों   की  नज़रें ठहरी हैं दरवाज़े   पर |
साक़ी अटका है ट्रेफिक में वक़्त लगेगा आने में ||

अब तो कोई भिजवादे इक बोतल मेरे घर पर ही |
बूढा  तन  थकता है मैख़ाने तक आने जाने में ||

                                   डा० सुरेन्द्र सैनी

अपनी  ज़िद  पर  अड़े हुए हैं क्यूँ ?
बीच    रस्ते   खड़े   हुए हैं क्यूँ ?

हमने मागां  तो  कुछ  नहीं उनसे |
उनके   तेवर   चढ़े   हुए हैं क्यूँ ?

खूब पढ़ -लिख गए मगर फिर भी |
ज़हन   इतने   सड़े  हुए हैं क्यूँ ?

आप  आदी हैं छोटी   बातों   के |
यूँ ही  इतने  बड़े   हुए  हैं क्यूँ ?

जिनको आग़ाज  नया  करना  है |
वो  ज़मीं  पर पड़े  हुए हैं  क्यूँ ?

                             डा० सुरेन्द्र सैनी

जोश  में  आकर कभी पत्थर न यूँ फेंका  करो |
ख़ुद हो शीशे से भी नाज़ुक यार कुछ सोचा करो ||

धूप में  तप  कर हमारा तन  तो लोहा हो गया |
मोम  सा  है तन तुम्हारा छाँव में  बैठा  करो ||

मानता हूँ ज़ुल्म ढाना  आपकी  फ़ितरत   में है |
तुम गिरेबाँ में भी  अपने  झांक कर देखा करो ||

चापलूसों   से   घिरे   रहना सदा  जायज़ नहीं |
साफगो  लोगों  से भी  मिलने कभी आया करो ||

पहले  छेड़ा  आपने  और  हमने छेड़ा चिढ गए |
ये  कहाँ  की  है  शराफ़त  सोच कर छेड़ा करो ?

                                 डा० सुरेन्द्र सैनी







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«Reply #3 on: July 05, 2011, 08:40:26 AM »
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bhut khoob dr sahab aap ke to ham kayal ho gaye............

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«Reply #4 on: February 09, 2012, 04:25:28 AM »
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«Reply #5 on: February 09, 2012, 04:26:13 AM »
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«Reply #6 on: February 09, 2012, 04:26:32 AM »
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«Reply #7 on: July 31, 2012, 10:23:21 AM »
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livingbytheday
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«Reply #8 on: August 02, 2012, 02:38:41 AM »
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waah waah, bahut hi behtareen ghazalon ki pesh kash
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suman59
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«Reply #9 on: August 02, 2012, 02:50:16 AM »
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excellant, wonderful, aur sab kuch...  Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley Clapping Smiley
bahut bahut khoob sir jee
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«Reply #10 on: August 04, 2012, 04:49:23 AM »
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deepak ji shukriya
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«Reply #11 on: August 04, 2012, 05:36:44 AM »
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Suman ji shukriya
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Raqeeb
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«Reply #12 on: December 24, 2012, 12:23:40 PM »
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Anaarhi
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«Reply #13 on: December 25, 2012, 03:05:29 PM »
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Wah wah sabhi rachnayein kamaal hi kamaaaaaal hai.....
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