अच्छा हुआ किनारा कटाव में आ गया ,दरिया रूका हुआ था बहाओं में आ गया

by RAJ SOLANKI on April 24, 2014, 07:28:49 PM
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RAJ SOLANKI
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अच्छा हुआ किनारा कटाव में आ गया ,
दरिया रूका हुआ था बहाओं में आ गया ,
करवट बदल के साँस लिया था ज़मीन ने ,
और आसमान यूँ ही तनाव में आ गया,
हैरत है चंद बर्फ़ के फूलों के बोझ से किस तरह ये पहाड़ झुकाव में आ गया ,
चौपाल की भड़कती कहानी के शौक़ में क्या जाने कौन कौन अलाव में आ गया ,
सोचा था अब की बार किनारे पे जाऊँगा
दरिया भी मेरे साथ ही नाव में आ गया,
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mann.mann
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«Reply #1 on: April 24, 2014, 07:46:46 PM »
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waah waaah bahut khub rajji
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खुश रहो खुश रहने दो l

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«Reply #2 on: April 24, 2014, 07:51:42 PM »
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 Hats off to you! Puzzled ! Hats off to you! Puzzled ! Hats off to you! Puzzled ! Hats off to you! Puzzled !

Heads off Raj Solanki Ji. Bethtareen aur lajawab composition hai aapki. Ek rau ke saath Daad Qabool karein. Aise hi likhte rahiye.
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premdeep
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«Reply #3 on: April 24, 2014, 09:21:39 PM »
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Solanki ji kripya kisi aur ki poetry ko share section me likhe ya phir use upar nm and us poet ka naam likhe ye kavita Afzal gauhar raav ji ki bahut charchit kriti hai.
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RAJ SOLANKI
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«Reply #4 on: April 25, 2014, 01:34:00 AM »
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Premdeep bhai mujhe mat batao  mujhe pta hai kis ka kya likha hua hai kis ki shyari hai kis ki gazal hai.

हिज्र में इतना ख़सारा तो नहीं हो सकता
एक ही इश्क़ दोबारा तो नहीं हो सकता
चंद लोगों की मोहब्बत भी ग़नीमत है मियाँ
शहर का शहर हमारा तो नहीं हो सकता
कब तलक क़ैद रखूँ आँख में बीनाई को
सिर्फ़ ख़्वाबों से गुज़ारा तो नहीं हो सकता
रात को छील के बैठा हूँ तो दिन निकला है
अब मैं सूरज से सितारा तो नहीं हो सकता
दिल की बीनाई को भी साथ मिला ले ‘गौहर’
आँख से सारा नज़ारा तो नहीं हो सकता
चुप-चाप निकल आए थे सहरा की तरफ़ हम
चलते हुए क्या देखते दुनिया की तरफ़ हम
पामाल किए जाती है इस वास्ते दुनिया
बैठे हैं तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तरफ़ हम
किस प्यास से ख़याली हुआ मश्कीज़ा हमारा
दरिया से जो उठ आए हैं सहरा की तरफ़ हम
क्या चाहती है नियत-ए-बाज़ार-ए-ज़माना
खिंचते चले जाते हैं जो अशिया की तरफ़ हम
ये अजनबी लोगों की ज़रा भीड़ छटे तो
जाएँगे किसी अपने शनासा की तरफ़ हम
‘गौहर’ ये ज़मीं हम को बहुत याद करेगी
उठ जाएँगे जब आलम-ए-बाला की तरफ़ हम

Ek or un ki likhi hui



नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से
गुफ़्तुगू करता रहा चाँद बराबर मुझ से
अपना साया उसे ख़ैरात में दे आया हूँ
धूप के डर से जो लिपटा रहा दिन भर मुझ से
कौन सी ऐसी कमी मेरे ख़द-ओ-ख़ाल में है
आईना ख़ुश नहीं होता कभी मिल कर मुझ से
क्या मुसीबत है कि हर दिन की मशक़्क़त के एवज़
बाँध जाता है कोई रात का पत्थर मुझ से
दश्त की सम्त निकल आया है मेरा दरिया
बस इसी पर हैं ख़फ़ा सारे समुंदर मुझ से
अपने हाथों को जो कश्कोल बनाया ‘गौहर’
गिर पड़ा जाने कहाँ मेरा मुक़द्दर मुझ से

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sksaini4
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«Reply #5 on: April 25, 2014, 08:51:40 AM »
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waah waah
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With a Quick-Reply you can use bulletin board code and smileys as you would in a normal post, but much more conveniently.


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