तुम्हारी आँखे

by opchachan on June 10, 2017, 11:05:21 AM
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opchachan
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जिसे लिखना पड़े सोच कर,
उसे कविता कहूं तो गुनाह हो।
ये चीज ही ऐसी है,जो खुद फूट आती है।
और कुछ ऐसी है, तुम्हारी आंखे,
काली, मोटी, गोल-मटोल सी,
नदियों सी चंचल, और सागर से गहरी।
ये खींच ले, बावरों को भी अपनी ओर,
इनका जादू है कुछ इस तरह,
जैसे पानी का होता है, प्यासे के लिए।
जानता हूं सच, फिर भी बयां कर देता हूं,
इन नयनों के पीछे, छिपे मेरे भी सपने है।
सपने कुछ ऐसे, जो सपने ही रहेंगे,
पहला तो तेरी आंखो का काजल बन जाने का,
दूजा पहले के सच हो जाने का,
और तीसरा, दुसरे के सच हो जाने का,
और ऐसे ही लाखों सपने... ।
मै बावरा हूं। और मेरे सपने भी बावरे।
पर जो भी हो, कुछ तो है दुनिया से परे सा
चाहे इनमे छिपी हया हो, शरारत हो,
मस्तियाँ हो, ताजगी हो, या कुछ और्।
हाँ यार नहीं पता ठीक-ठीक,
पर कुछ तो है...
भले ही वो ‘उषा’ की चमक क्यों न हो।
नहीं पता ये कविता है! या फिर क्या?
चलो कविता न सही,
इसे अपनी आँखो की तारीफ ही समझ लो।
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MANOJ6568
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«Reply #1 on: June 11, 2017, 04:44:34 PM »
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जिसे लिखना पड़े सोच कर,
उसे कविता कहूं तो गुनाह हो।
ये चीज ही ऐसी है,जो खुद फूट आती है।
और कुछ ऐसी है, तुम्हारी आंखे,
काली, मोटी, गोल-मटोल सी,
नदियों सी चंचल, और सागर से गहरी।
ये खींच ले, बावरों को भी अपनी ओर,
इनका जादू है कुछ इस तरह,
जैसे पानी का होता है, प्यासे के लिए।
जानता हूं सच, फिर भी बयां कर देता हूं,
इन नयनों के पीछे, छिपे मेरे भी सपने है।
सपने कुछ ऐसे, जो सपने ही रहेंगे,
पहला तो तेरी आंखो का काजल बन जाने का,
दूजा पहले के सच हो जाने का,
और तीसरा, दुसरे के सच हो जाने का,
और ऐसे ही लाखों सपने... ।
मै बावरा हूं। और मेरे सपने भी बावरे।
पर जो भी हो, कुछ तो है दुनिया से परे सा
चाहे इनमे छिपी हया हो, शरारत हो,
मस्तियाँ हो, ताजगी हो, या कुछ और्।
हाँ यार नहीं पता ठीक-ठीक,
पर कुछ तो है...
भले ही वो ‘उषा’ की चमक क्यों न हो।
नहीं पता ये कविता है! या फिर क्या?
चलो कविता न सही,
इसे अपनी आँखो की तारीफ ही समझ लो।

hu
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