वो दौर भी क्या था

by nandbahu on July 18, 2020, 07:29:18 AM
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nandbahu
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वो दौर भी क्या था जब मिल कर रहते थे,
पिठ्ठू और गुल्ली डंडा सब खेला करते थे।
मिट्टी की सौंधी महक लगती भली थी,
बारिश में भीगने की अपनी मस्ती थी।
कागज की नाव हम बनाया करते थे,
बारिश के नालो में बहाया करते थे।
मुंडेर में जब कागा कांव कांव करता था,
मेहमान घर आने की खबर देता था।
पहली रोटी बनती गाय को देते थे,
रोटी आखिरी मोती को देते थे।
घर से कोई मेहमा भूखा नही जाता था,
भिखारी भी घर से अन्न लेकर जाता था।
मकान सब लगे होते एक दूजे से,
रिश्ते उनमे अपनेपन के पनपते।
शादी व्याह मौत में सब एक होते थे,
सुख दुःख सब मिल बांटा करते थे।
त्योहार मनाने का अपना ही मजा था,
पकवानो की खुशबू से पता चलता था।
घर घर में ओखली चक्की होती थी,
पीस कूटने की गूंज घर घर में होती थी।
होली में टेसू फूल चुन लाते थे,
किसको कौन रंगेगा मिल सोचते थे।
तालाब में यारो के संग नहाते थे,
दोस्ती में स्वार्थ के भाव नही थे।
चबूतरे में सुबह सांझ सब मिलते थे,
गांव के सब किस्से बांचते थे।
गोधूलि का भी अपना नजारा होता था,
संगीत गले घण्टी का भला लगता था।
लोक गीतों की धुन सुनाई देती थी,
दादी बुआ काकी सब गाती थी।
गांवो के मकान सब कच्चे होते थे,
पर रिश्ते उन दिनों सब पक्के होते थे।
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nandbahu
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«Reply #2 on: July 18, 2020, 01:39:37 PM »
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surindarn
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«Reply #3 on: July 18, 2020, 03:23:28 PM »
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वो दौर भी क्या था जब मिल कर रहते थे,
पिठ्ठू और गुल्ली डंडा सब खेला करते थे।
मिट्टी की सौंधी महक लगती भली थी,
बारिश में भीगने की अपनी मस्ती थी।
कागज की नाव हम बनाया करते थे,
बारिश के नालो में बहाया करते थे।
मुंडेर में जब कागा कांव कांव करता था,
मेहमान घर आने की खबर देता था।
पहली रोटी बनती गाय को देते थे,
रोटी आखिरी मोती को देते थे।
घर से कोई मेहमा भूखा नही जाता था,
भिखारी भी घर से अन्न लेकर जाता था।
मकान सब लगे होते एक दूजे से,
रिश्ते उनमे अपनेपन के पनपते।
शादी व्याह मौत में सब एक होते थे,
सुख दुःख सब मिल बांटा करते थे।
त्योहार मनाने का अपना ही मजा था,
पकवानो की खुशबू से पता चलता था।
घर घर में ओखली चक्की होती थी,
पीस कूटने की गूंज घर घर में होती थी।
होली में टेसू फूल चुन लाते थे,
किसको कौन रंगेगा मिल सोचते थे।
तालाब में यारो के संग नहाते थे,
दोस्ती में स्वार्थ के भाव नही थे।
चबूतरे में सुबह सांझ सब मिलते थे,
गांव के सब किस्से बांचते थे।
गोधूलि का भी अपना नजारा होता था,
संगीत गले घण्टी का भला लगता था।
लोक गीतों की धुन सुनाई देती थी,
दादी बुआ काकी सब गाती थी।
गांवो के मकान सब कच्चे होते थे,
पर रिश्ते उन दिनों सब पक्के होते थे।
Waah hee waah bahut achhaa ehsaas hai
Poochnaa to shaayad nahin chaahiye kitaa bhurhaa aapkaa saans hai.
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«Reply #4 on: July 18, 2020, 04:04:26 PM »
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धन्यवाद। पर आप कहना क्या चाहते है कि मेरा बूढा सांस है।
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«Reply #5 on: July 19, 2020, 08:22:33 AM »
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nandbahu
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«Reply #6 on: July 19, 2020, 02:17:12 PM »
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Arey bhai main 86 saal kaa hoon. Guli dandaa kanche etc khelaa kartaa thah main hee sochh rahaa thaa ke woh mar chuke hain.
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