हम मधु संचित करते हैं (ज़र्रा)

by zarra on November 15, 2010, 05:45:49 PM
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zarra
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हम मधु संचित करते हैं, हम मधु संचित करते हैं

कामुक नव यौवना कली का नेह निमंत्रण पा पा कर
निकल पड़े भीगे सावन में छाँव विटप की ठुकरा कर
हाय कुसुम का ह्रदय छेदने में क्या हिय में टीस उठी
फूट पड़े आँखों से आंसू बन पराग बिखरे भू पर

हम निसर्ग के प्रथम डाकिये बीज अंकुरित करते हैं
हम मधु संचित करते हैं, हम मधु संचित करते हैं

इस क्यारी की ठौर गए तो उस बगिया की राह चले
न्यौता लेकर मिली सुरभि तो थाम उसी की बांह चले
दो दिन पंकज पर पसरे तो रजनीगंधा रूठ गयी
हाथ झाड़कर निकल पड़े फिर धूप  जले या छाँव मिले

व्यर्थ बसेरे की आशा में ह्रदय न विचलित करते हैं
हम मधु संचित करते हैं, हम मधु संचित करते हैं

ये न समझना आवारा हैं मन मर्जी के मालिक हैं
पल में उत्तेजित प्रेमी पल में निर्मोही साधक हैं
जग की सौ सौ त्रिशनायें  हैं उन्हें तृप्त करने को ही
हमनें सौ सौ रूप धरे हैं जीवन अपना नाटक है

दर्पण हैं हम रूप तुम्हारा ही प्रतिबिम्बित करते हैं
हम मधु संचित करते हैं, हम मधु संचित करते हैं

ज़र्रा
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