छोटी सी जिन्दगी... " ऋषि अग्रवाल "

by Rishi Agarwal on December 14, 2014, 03:06:26 PM
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Rishi Agarwal
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उलझने हैं बहुत, इस छोटी सी जिन्दगी में,
ना चैन,ना सकुन, बदल रहे इन नजारों में..

नुक्कड़-नुक्कड़ बैठ गये., धर्म के ठेकेदार,
जात -पात पे लड़ रहे, सरे आम बाजारों में..

पत्थरों जैसा कठोर हुआ., दिल इंसान का,
बिक रहा ईमान देखियें, चंद कुछ अर्थों में..

मात-पिता लगे बैरी, बैगानों पे उमड़ता प्रेम,
कर्तव्य, नेह, निष्ठा, सब मिलता किताबों में..

नंगा तन., भूखा मन, लाचारी से भरी आँखें,
उथल - पुथल मची, इंसान और बैइमानों में..

लहूलुहान पड़ी इंसानियत, मामला हैं गम्भीर,
देखो खुशियाँ बँट रही, अश्लील भरें गानों में..

रूह थर-थर घबराई, देख अजब सा माहोल,
इज्जत बिक रही थी., सरे आम मयखानों में..

दरों - दीवारें चीखनें लगी हैं, देख के हैवान,
अस्मत हाय-हाय करती, सुनसान वीरानों में..

चहुँ ओर छाया अँधेरा, नि:शब्द हुआ इंसान,
बहु-बेटियां जल रही, दहेज़ लोभी अंगारों में..

बना पुजारी धन - दौलत का, ये कैसा इंसान,
उजड़ रहें घर "ऋषि", छोटी सी तकरारों में..


अर्थ = धन

_______________
ऋषि अग्रवाल
१४ दिसम्बर २०१४
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surindarn
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«Reply #1 on: December 14, 2014, 09:07:17 PM »
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Atee suder Rishi Sahib, dheron daad. icon_flower icon_flower icon_flower
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amit_prakash_meet
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«Reply #2 on: December 15, 2014, 04:42:07 AM »
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वाह....बहुत खूब......

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Rishi Agarwal
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«Reply #3 on: December 15, 2014, 03:12:57 PM »
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Atee suder Rishi Sahib, dheron daad. icon_flower icon_flower icon_flower

आभार सुरिन्दर्ण जी
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Rishi Agarwal
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«Reply #4 on: December 15, 2014, 03:37:46 PM »
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वाह....बहुत खूब......



आभार अमित जी
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ambalika sharma
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«Reply #5 on: December 16, 2014, 06:39:26 AM »
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उलझने हैं बहुत, इस छोटी सी जिन्दगी में,
ना चैन,ना सकुन, बदल रहे इन नजारों में..

नुक्कड़-नुक्कड़ बैठ गये., धर्म के ठेकेदार,
जात -पात पे लड़ रहे, सरे आम बाजारों में..

पत्थरों जैसा कठोर हुआ., दिल इंसान का,
बिक रहा ईमान देखियें, चंद कुछ अर्थों में..

मात-पिता लगे बैरी, बैगानों पे उमड़ता प्रेम,
कर्तव्य, नेह, निष्ठा, सब मिलता किताबों में..

नंगा तन., भूखा मन, लाचारी से भरी आँखें,
उथल - पुथल मची, इंसान और बैइमानों में..

लहूलुहान पड़ी इंसानियत, मामला हैं गम्भीर,
देखो खुशियाँ बँट रही, अश्लील भरें गानों में..

रूह थर-थर घबराई, देख अजब सा माहोल,
इज्जत बिक रही थी., सरे आम मयखानों में..

दरों - दीवारें चीखनें लगी हैं, देख के हैवान,
अस्मत हाय-हाय करती, सुनसान वीरानों में..

चहुँ ओर छाया अँधेरा, नि:शब्द हुआ इंसान,
बहु-बेटियां जल रही, दहेज़ लोभी अंगारों में..

बना पुजारी धन - दौलत का, ये कैसा इंसान,
उजड़ रहें घर "ऋषि", छोटी सी तकरारों में..


अर्थ = धन

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ऋषि अग्रवाल
१४ दिसम्बर २०१४
ye bas ek kavita nhi hai,,,ek bhayanak sach hai hamare samaj ka.hme koshish krni hai.ek chota kadam badana hai iske khilaf...shukriya in baaton ko apni rachna me utarne ke liye.
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«Reply #6 on: December 16, 2014, 03:06:32 PM »
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kyaa baat hai waah waah bahut sunder
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RAJAN KONDAL
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«Reply #7 on: December 16, 2014, 06:07:54 PM »
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bahoooot umda likha hai rishi ji
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With a Quick-Reply you can use bulletin board code and smileys as you would in a normal post, but much more conveniently.


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