प्रेम तो बस एक धोखा है

by ashishfromorai on February 23, 2012, 05:57:03 AM
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ashishfromorai
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प्रेम के इस कंटक पथ पर पग क्यूँ तुमने ये रखा है,
विलग जगत की दावानल में जल जाये ह्रदय वो भभका है
पग पग है कठिनाई भरा, पल पल है तन्हाई भरा,
प्रेम मगन मन की ये व्यथा, न जगता है न सोता है,
इस मिथ्यापन से बाहर निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

जिस प्रियंवदा को देख तेरा मन मुदित प्रफुल्लित होता है,
अंग अंग उत्साह भरा और चेहरा पुलकित होता है,
बसा प्रेम ये जो तेरे मन में, बस यौवन का झोका है,
इस मिथ्यापन से बाहर निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

साथ में हसना साथ में रोना,
साथ में जागना, साथ में सोना,
उस प्रेम वृक्ष की छाया में, मदहोश बने आलिन्गत होना,
दुःख के दिन में कोई भी तेरा, संग न साथी होता है,
इस मिथ्यापन से बाहर निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

आँखों की झूठी शर्म हया में,
विद्वान् बावरे हो जाते हैं,
अधरों के चंचल कम्पन में,
वीरों के तेज चुक जाते हैं,
खोकर के अपना यश और गौरव, कुछ भी न हासिल होता है,
इस मिथ्यापन से बाहर निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है |

मैंने भी बहुत कुछ खोया है,
दिल हर पल हर लम्हा रोया है,
जब आँख खुली अंतर्मन की,
तब इस दिल को एहसास हुआ,
प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं, ये तो बस बहती हवा का झोका है,
इस मिथ्यापन से बाहर निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है |

आशीष श्रीवास्तव
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sksaini4
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«Reply #1 on: February 23, 2012, 06:00:33 AM »
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Ashish ji bahut sunder rachnaa hai padh kar man prasann huaa.swaagat hai aap kee lekhnee men bahut jaan hai badhaai
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ashishfromorai
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«Reply #2 on: February 23, 2012, 06:08:23 AM »
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बहुत बहुत धन्यवाद डॉ. साहब. मैंने आपकी कुछ रचनाएं अभी अभी पढ़ी, बहुत अछ्छी लगी. उम्मीद है इस मंच पर आके कुछ और सीखने का अवसर प्राप्त होगा.
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pawan16
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«Reply #3 on: February 23, 2012, 09:18:02 AM »
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usha rajesh
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«Reply #4 on: February 24, 2012, 02:33:45 AM »
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प्रेम के इस कंटक पथ पर पग क्यूँ तुमने ये रखा है,
विलग जगत की दावानल में जल जाये ह्रदय वो भभका है
पग पग है कठिनाई भरा, पल पल है तन्हाई भरा,
प्रेम मगन मन की ये व्यथा, न जगता है न सोता है,
इस मिथ्यापन से बहार निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

जिस प्रियंवदा को देख तेरा मन मुदित प्रफुल्लित होता है,
अंग अंग उत्साह भरा और चेहरा पुलकित होता है,
बसा प्रेम ये जो तेरे मन में, बस यौवन का झोका है,
इस मिथ्यापन से बहार निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

साथ में हसना साथ में रोना,
साथ में जागना, साथ में सोना,
उस प्रेम वृक्ष की छाया में, मदहोश बने आलिन्गत होना,
दुःख के दिन में कोई भी तेरा, संग न साथी होता है,
इस मिथ्यापन से बहार निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है|

आँखों की झूठी शर्म हया में,
विद्वान् बावरे हो जाते हैं,
अधरों के चंचल कम्पन में,
वीरों के तेज चुक जाते हैं,
खोकर के अपना यश और गौरव, कुछ भी न हासिल होता है,
इस मिथ्यापन से बहार निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है |

मैंने भी बहुत कुछ खोया है,
दिल हर पल हर लम्हा रोया है,
जब आँख खुली अंतर्मन की,
तब इस दिल को एहसास हुआ,
प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं, ये तो बस बहती हवा का झोका है,
इस मिथ्यापन से बहार निकलो, प्रेम तो बस एक धोखा है |

आशीष श्रीवास्तव

आशीष जी, बहुत सुन्दर पेशकश है.दाद कबूल कीजिये.

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ashishfromorai
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«Reply #5 on: February 24, 2012, 02:39:18 PM »
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सराहना की लिए बहुत बहुत धन्यवाद उषा जी, आपका सन्देश पढ़ा तो पता चला की एक टंकण भूल हुयी है. "बहार" की जगह वो "बाहर" ही है.
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