श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद.............................अरुण मिश्र.

by arunmishra on September 13, 2014, 09:53:30 PM
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arunmishra
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जगद्गुरु शङ्कराचार्य  की रचनाएँ न केवल भक्ति के
पावन गङ्गा में डुबकी लगवाती हैं अपितु , काव्य के
निर्मल निर्झरणी में काव्य-रसिकों को आनंदमय -स्नान
के लाभ का अवसर भी प्रदान करती हैं ।

मई, २००२ में श्रीमत् शङ्कराचार्य विरचित इस  
यमुनाष्टक का मेरे द्वारा किया गया भावानुवाद
कागजों में कहीं खो गया था जो अचानक कल मिल गया ।
इसे सभी काव्य-रसिकों एवं  'शङ्कर' तथा यमुना-भक्तों
हेतु प्रस्तुत करने के  लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ ।

                                      -अरुण मिश्र.


श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित
श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद

-अरुण मिश्र.

मुरारि-तन-सुकालिमा  ले नीर में,   विहर रही।
 समक्ष स्वर्ग, तुल्य तृण; त्रिलोक-शोक हर रही।
 कुंज-पुंज कूल के मनोज्ञ;    मद-कलुष  विदा।
 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

                मल सकल  विनाशिनी;  सुनीर से  सुपूरिता।
                नंदसुत-सुअंग  संग   पा  के,    राग-रंजिता।
                प्रघोर-पाप-चोरिणी;  सदा प्रवीण;  मुक्तिदा।
                कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

तरंग के परस से पाप,   प्राणियों  के   हर उठें।
सुभक्ति हेतु तट,  सुभक्त चातकों से भर उठें।
भक्त-रूप     कूल-हंस-सेविता;     सुकामदा।
कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

                विहार-रास-श्रम  हरे,   समीर धीर  तीर का।
                गिरा  कहाँ बता सके,   सुचारुता  सुनीर का।
                नद-नदी-धरा  पवित्र,   पा  प्रवाह  शुचिप्रदा।
                कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

 सुश्यामला;   तरंग संग   बालुका से  उर भरे।
 सिंगार,   रश्मि-मंजरी   शरद के चंद्र की करे।
 अर्चना   के    हेतु    चारु-नीरदा;     सुतोषदा।
 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

                 रम्य-राधिका-सुअंग-अंगराग    पा    खिले।
                 अंग-संग कान्ह का  न अन्य को,  इसे मिले।
                 निज  प्रवाह   सप्तसिंधु   भेदती,   शुभप्रदा।
                 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

कृष्ण-रंग रंगी, ले गोपियों को  भाग्यशालिनी।
राधिका-सुकेश-माल   से    हुई    है   मालिनी।
नारदादि  कृष्ण-भृत्य,    स्नान   करें   सर्वदा।
कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।

                 मंजु-कुंज   खेलते,   सदैव   नंद   के   लला।
                 मल्लिका-कदंब-रेणु से है  तट समुज्जवला।
                 स्नान नर करें, तरें वो भव-उदधि; स्वधामदा।
                 कलिंदनंदिनी,  हमारे मन का मल  धुले सदा।।
                                                 *

(इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचित श्री यमुनाष्टकम् का भावानुवाद सम्पूर्ण हुआ।)
मूल संस्कृत पाठ  :

श्रीयमुनाष्टकम्





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«Reply #1 on: September 15, 2014, 12:31:55 AM »
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bahut khoob Janaab, thank you for sharing. Applause Applause Applause
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