नज़्म "कसक "---दीपक शर्मा

by kavyadharateam on May 11, 2014, 02:14:38 PM
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kavyadharateam
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नज़्म "कसक "---दीपक शर्मा
 

 गुज़रा  वक़्त वापस लाने  की ना यार कोशिश कर

अगर पन्ने पलटे तारीख़ फिर इमरोज़ बन जायेगी

बहुत मुश्क़िल से संभला हूँ मुद्दतों बाद  मेरी जान

कहीं अरमान मचले फिर से नई कहानी बन जायेगी।

 

कई रातें मैंने खामोश रहके अश्क़तारी में गुजारी हैं

कई दिन मैंने तपती धूप पीकर  सहरा में बिताएं हैं

कई बार ख़ुद को टूटते हुए मैंने आइनों  में देखा है

और कई बार अपनी क़ब्र पर ख़ुद दीपक जलाएं हैं।

 

अभी भी याद है मुझको दोस्तों के वो तंग फ़िक़रे

अभी भूला नहीं कैसे सब मुझपे चुप रहके हँसते थे

अभी भी दिल बहुत सी तल्ख़ियाँ ख़ुद में समेटे हैं

अभी भी याद है लोग कैसे ज़हरीले तंज़ कसते थे।

 

मुझे ख़ुद में बहुत शर्मिंदगी है आख़िर क्यूँकर मैं  

चाहकर भी तेरा हाथ पूरी तरह से छोड़ नहीं पाया

कहीं ऐसा तो नहीं तेरी दुनिया बर्बाद कर रहा हूँ मैं

वक़्त के रहते  जब तुझसे रिश्ता जोड़ नहीं पाया।

 

तू इस चिंगारी से अपना न कहीं दामन जला लेना

सिर पर चुनरी तेरे माँ बाप की सादिक अमानत है

मेरी मोहब्बत मेरे ख़ातिर मेरे जिस्म का हिस्सा है

ख़ुदा भी पाक़ मोहब्बतों की ख़ुद करता हिफ़ाज़त है.

 

ये मेरी नज़्म शायद तेरे दिल को भाये या न भाये

मगर कभी सोचना तो समझ जाओगी मोहब्बत को

हसीन लम्हें मिटा दो दिल से एकबार हौसला करके

भूल जाओ सालों से दफ़न बीती नाकाम चाहत को।

 

मैं परछाईं हूँ जो कभी नहीं एक जिस्म बन सकती

और जो जिस्म है आज क्यों उसे परछाईं बनाती हो

जहाँ पर मौज़ें आकर ख़ुद- ब- ख़ुद दम तोड़ देतीं हों

वीरान साहिल पर क्यों फिर बेवज़ह लहरें बुलाती हो.

 

@ कवि दीपक शर्मा



 
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Advo.RavinderaRavi
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«Reply #1 on: May 11, 2014, 02:46:44 PM »
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नज़्म "कसक "---दीपक शर्मा
 

 गुज़रा  वक़्त वापस लाने  की ना यार कोशिश कर

अगर पन्ने पलटे तारीख़ फिर इमरोज़ बन जायेगी

बहुत मुश्क़िल से संभला हूँ मुद्दतों बाद  मेरी जान

कहीं अरमान मचले फिर से नई कहानी बन जायेगी।

 

कई रातें मैंने खामोश रहके अश्क़तारी में गुजारी हैं

कई दिन मैंने तपती धूप पीकर  सहरा में बिताएं हैं

कई बार ख़ुद को टूटते हुए मैंने आइनों  में देखा है

और कई बार अपनी क़ब्र पर ख़ुद दीपक जलाएं हैं।

 

अभी भी याद है मुझको दोस्तों के वो तंग फ़िक़रे

अभी भूला नहीं कैसे सब मुझपे चुप रहके हँसते थे

अभी भी दिल बहुत सी तल्ख़ियाँ ख़ुद में समेटे हैं

अभी भी याद है लोग कैसे ज़हरीले तंज़ कसते थे।

 

मुझे ख़ुद में बहुत शर्मिंदगी है आख़िर क्यूँकर मैं 

चाहकर भी तेरा हाथ पूरी तरह से छोड़ नहीं पाया

कहीं ऐसा तो नहीं तेरी दुनिया बर्बाद कर रहा हूँ मैं

वक़्त के रहते  जब तुझसे रिश्ता जोड़ नहीं पाया।

 

तू इस चिंगारी से अपना न कहीं दामन जला लेना

सिर पर चुनरी तेरे माँ बाप की सादिक अमानत है

मेरी मोहब्बत मेरे ख़ातिर मेरे जिस्म का हिस्सा है

ख़ुदा भी पाक़ मोहब्बतों की ख़ुद करता हिफ़ाज़त है.

 

ये मेरी नज़्म शायद तेरे दिल को भाये या न भाये

मगर कभी सोचना तो समझ जाओगी मोहब्बत को

हसीन लम्हें मिटा दो दिल से एकबार हौसला करके

भूल जाओ सालों से दफ़न बीती नाकाम चाहत को।

 

मैं परछाईं हूँ जो कभी नहीं एक जिस्म बन सकती

और जो जिस्म है आज क्यों उसे परछाईं बनाती हो

जहाँ पर मौज़ें आकर ख़ुद- ब- ख़ुद दम तोड़ देतीं हों

वीरान साहिल पर क्यों फिर बेवज़ह लहरें बुलाती हो.

 

@ कवि दीपक शर्मा



 
बहुत खूबसूरत रचना लिखी है दीपक जी.~~
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sksaini4
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«Reply #2 on: May 11, 2014, 06:54:55 PM »
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waah waah bahut khoob
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khamosh_aawaaz
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«Reply #3 on: May 11, 2014, 11:27:19 PM »
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नज़्म "कसक "---दीपक शर्मा
 

 गुज़रा  वक़्त वापस लाने  की ना यार कोशिश कर

अगर पन्ने पलटे तारीख़ फिर इमरोज़ बन जायेगी

बहुत मुश्क़िल से संभला हूँ मुद्दतों बाद  मेरी जान

कहीं अरमान मचले फिर से नई कहानी बन जायेगी।

 

कई रातें मैंने खामोश रहके अश्क़तारी में गुजारी हैं

कई दिन मैंने तपती धूप पीकर  सहरा में बिताएं हैं

कई बार ख़ुद को टूटते हुए मैंने आइनों  में देखा है

और कई बार अपनी क़ब्र पर ख़ुद दीपक जलाएं हैं।

 

अभी भी याद है मुझको दोस्तों के वो तंग फ़िक़रे

अभी भूला नहीं कैसे सब मुझपे चुप रहके हँसते थे

अभी भी दिल बहुत सी तल्ख़ियाँ ख़ुद में समेटे हैं

अभी भी याद है लोग कैसे ज़हरीले तंज़ कसते थे।

 

मुझे ख़ुद में बहुत शर्मिंदगी है आख़िर क्यूँकर मैं 

चाहकर भी तेरा हाथ पूरी तरह से छोड़ नहीं पाया

कहीं ऐसा तो नहीं तेरी दुनिया बर्बाद कर रहा हूँ मैं

वक़्त के रहते  जब तुझसे रिश्ता जोड़ नहीं पाया।

 

तू इस चिंगारी से अपना न कहीं दामन जला लेना

सिर पर चुनरी तेरे माँ बाप की सादिक अमानत है

मेरी मोहब्बत मेरे ख़ातिर मेरे जिस्म का हिस्सा है

ख़ुदा भी पाक़ मोहब्बतों की ख़ुद करता हिफ़ाज़त है.

 

ये मेरी नज़्म शायद तेरे दिल को भाये या न भाये

मगर कभी सोचना तो समझ जाओगी मोहब्बत को

हसीन लम्हें मिटा दो दिल से एकबार हौसला करके

भूल जाओ सालों से दफ़न बीती नाकाम चाहत को।

 

मैं परछाईं हूँ जो कभी नहीं एक जिस्म बन सकती

और जो जिस्म है आज क्यों उसे परछाईं बनाती हो

जहाँ पर मौज़ें आकर ख़ुद- ब- ख़ुद दम तोड़ देतीं हों

वीरान साहिल पर क्यों फिर बेवज़ह लहरें बुलाती हो.

 

@ कवि दीपक शर्मा



 

veriiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii-naaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaice
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kavyadharateam
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«Reply #4 on: May 18, 2014, 07:04:24 PM »
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mere ahwaab aapka ka shukria
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With a Quick-Reply you can use bulletin board code and smileys as you would in a normal post, but much more conveniently.


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