devanshukashyap
Guest
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तेरी राह निहारें नैना इस दीये की लौह पे, बीते मेरा इक इक पल देख तुझे उजले चमके |
गिनूं साँस चारों पहर मैं, पलकें बिछाए उस पथ पे, लगता है जहाँ देख मुझको मिलूँगी मैं कभी तुझसे |
नाव प्रभात फिर महक उठी है तेज़ रश्मियाँ भी संग हैं, चीख ज़ोर से कहें जो मुझसे “देख तो! वह आया है” !
मचल गयी मैं दौड़ी नीचे उस चंचल तितली जैसी, भागें जो कलियों के पीछे पुष्प रसाल की तलाश में |
इस अतिशुभ दुर्लभ मुहूर्त में क्रंदन ध्वनियाँ हैं हुईं झँकृत, कराल काल की रूदित वाणी अब ना होंगी मन में निर्मित |
हे जलधर, शिवप्रिय मेरे मेघा भीतर अपने तू पुष्प भर ले, स्वागत में मेरे प्रियतम के हर्षित होकर पाती कर दे |
सलोने सुमधुर इस उत्सव पर भगवती आलय सुसज्जित करूँगी, सुहागन साक्षी तेरे प्रिय सिंधूर की लालिमा से व्योम रंजीत कर दूँगी |
लुप्त हो गयी क्यूँ ये रोशनी ? घटायें हुईं क्यूँ तुम काली ? राग हुये क्यूँ पुनः भयंकर ? कहाँ गयी उत्सव की लाली ?
इतः ततः मेरे ये प्रकृति क्षण भर में हो उठी जीवित, उसका कटाक्ष मेरे इस भ्रम पर कर रहा था मुझको पीड़ित |
क्रूरा आँधी अपने कुकरों संग पहुँची दीये की लौह की ओर, अथाह वार कर हुई पराजित सहमी गयी दुर्गति के छोर|
दुष्कर मेघों के शस्त्र वारुणी हर ना सके मेरे दीये के प्राण, बरस बरस वो मृत्यु दर पहुँचे पर गयी ना मेरे व्रत प्रतीक की शान|
अपने कक्ष के द्वार से अब भी कर रही हूँ मैं, पथ अवलोकन, बालकपन की उस जुदाई का अब तक है देवा, मुझे स्मरण|
जन्मों सम इन दिवसों में मैं सदियों सम, होरों में जीती हूँ, प्रतिपल दुर्गम प्रतीक्षा में तेरे आगमन आशा में रहती हूँ |
भेजे तुम्हारे सभी पत्रों का नियमित पठन मैं करती हूँ, उन पत्रों में गूँथी सुगंधि से आलिंगन तुम्हारा करती हूँ |
मटियाली गोधुलि वेला में जब मंदिरों में गायन होते हैं , धर दीया तेरा, मन आलय में अपने पूजन तेरे ही होते हैं |
सूर्यास्त की अंतिम किरणों पे जब काली चुनरिया लहराती है, जडित उसमें सभी रत्नों के संग आभा तेरी बढ़ जाती है |
आगामी दिवस में तेरे दर्शन की आस लगाए रहती हूँ, कर पूजन अपने व्रत प्रतीक की लौह को देखती रहती हूँ |
निर्दयी है बहुत यह विष वियोग का हर रहा है ये मेरे प्राण, आ जाओ तुम इस से पहले लग जाए मेरे श्वासों पे विराम |
निर्दयी है बहुत यह विष वियोग का हर रहा है ये मेरे प्राण, आ जाओ तुम इस से पहले लग जाए मेरे श्वासों पे विराम |
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