मैं चाँद सूरज बनकर जिसमे उगता रहा ढलता रहा ।

by kavyadharateam on October 30, 2015, 05:38:46 AM
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kavyadharateam
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जिस राह पर .हर बार मुझे अपना कोई छलता रहा
फिर भी. न जाने  क्यों  मैं  उस राह ही  चलता रहा ;

सोचा  बहुत  इस  बार मैं  रोशनी  नहीं  धुँआ  दूंगा.
लेकिन चिराग था फितरतन जलता रहा -जलता रहा

अपनी थमा के अंगुलियाँ चलना सिखाया था जिसे
वो इस तरह से बदला  जैसे  मौसम  बदलता रहा।

कब रो पड़ा तुझे यादकर मुझको नही कुछ खबर
दिल आँसूओं की शक़्ल ले गलता रहा गलता रहा।

है उसका दामन  समुन्दर और हस्ती मेरी आफ़ताब
मैं चाँद सूरज बनकर जिसमे उगता रहा ढलता रहा ।

खुदा बदल ले निजाम वरना लोग सिर  न झुकायेंगे
सच्चाई भूखों मरती है और झूठ खूब फलता रहा।

अंजाम की हम  सोचकर  आगाज़ तक  ना कर सके
अफ़सोस "दीपक "बाद में बशर  हाथही स मलता रहा।  
@दीपक शर्मा
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«Reply #1 on: October 30, 2015, 10:00:16 AM »
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जिस राह पर .हर बार मुझे अपना कोई छलता रहा
फिर भी. न जाने  क्यों  मैं  उस राह ही  चलता रहा ;

सोचा  बहुत  इस  बार मैं  रोशनी  नहीं  धुँआ  दूंगा.
लेकिन चिराग था फितरतन जलता रहा -जलता रहा

अपनी थमा के अंगुलियाँ चलना सिखाया था जिसे
वो इस तरह से बदला  जैसे  मौसम  बदलता रहा।

कब रो पड़ा तुझे यादकर मुझको नही कुछ खबर
दिल आँसूओं की शक़्ल ले गलता रहा गलता रहा।

है उसका दामन  समुन्दर और हस्ती मेरी आफ़ताब
मैं चाँद सूरज बनकर जिसमे उगता रहा ढलता रहा ।

खुदा बदल ले निजाम वरना लोग सिर  न झुकायेंगे
सच्चाई भूखों मरती है और झूठ खूब फलता रहा।

अंजाम की हम  सोचकर  आगाज़ तक  ना कर सके
अफ़सोस "दीपक "बाद में बशर  हाथही स मलता रहा।   
@दीपक शर्मा
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