जन्म मरण के चक्र के कारण
मैं फिर धरती पे आया था,
ले प्रथम श्वास मैं रो पड़ा
जग सारा मस्ती में झूम रहा था |
पूर्वजनम के कर्मों की रश्मि
नवग्रह मुझपर डाले थे,
सुख, दुख, दंड और पुरस्कार लिए
कालचक्र में विराजित थे |
पूछता हूँ उस रचनाकार से मैं,
क्या संचित कर मैं लाया था,
पृथ्वी जैसे मधुर लोक में क्यूँ उसने
नरक सा वात फैलाया था |
मेरी उपस्थिति और इच्छायें
क्यूँ ना किसी को भाती थीं,
तेरी दी इस काया में क्यूँ
इक अबोध कन्या कराहती थी |
प्रश्न दिए वो, जो थे निरुत्तर,
इच्छायें दी वो, जो ना हों कभी त्रिप्प्त,
क्यूँ दिया वो संगीत तूने
थी नृत्य कृति जिसपर धिक्कृत |
मेरे आसपास सारा जनमानस,
मुझे तनिक ना भाता था,
रत्ती भर भी ना मुझे स्वीकारते
बस अब उनसे नफ़रत करता था |
उपहासयुक्त वो कुत्सित चेहरे
तीक्ष्ण प्रहार करते थे,
नित दिन प्रतिपल वो पापी जन
मुझमें विष फैलाते थे |
अपमान , कटाक्ष की निर्दय दलदल
धीमे धीमे निगलती रहती,
काबू कर हर अंग, मुझ कठपुतली के
कराल नाट्य ,कुकृति करती |
हुये स्पंदन अब अल्प गति के
खाली पात्र था वीर्य कोष,
काक चुनरिया रात्रि सी अंधी
जकड़ गयी सारा संतोष|
पाता जगत ये जिसे सहज से
उसकी प्राप्ति थी मेरी लड़ाई,
लड़ लड़ कर जब हुआ मैं कायर
प्राप्ति नाम ने ली विदाई |
हुई अपनी आत्मा भी दूर अब मुझसे
अब मैं भी अपना शत्रु था,
अपने मुख से स्वयं की निंदा कर
खुद पे वार मैं करता था |
छिन गया बचपन, छिन गया यौवन
छिन गया अब सबकुछ मुझसे,
त्राहि त्राहि मैं चीखता रहता
माथा फोड़ तेरे दर पे |
रात्रिकाल के अंधकार में
हस्त ना जाने क्या टटोलते,
पत्थर मार, कोयले से गगन पे
निद्रा धरा की भंग करते |
क्या मैं करता, क्यूँ मैं करता
हर करम था उद्देश्यहीन,
तिरस्कार के पिशाच पाश में
हो गया तहा मैं बलहीन |
हे दयानिधे, हे कृपानिधान
दो में से इक वर दे दो,
भाग्य मेरा जागृत कर दो
या ये काया मेरी नष्ट कर दो |
हे दयानिधे, हे कृपानिधान
दो में से इक वर दे दो,
भाग्य मेरा जागृत कर दो
या ये काया मेरी नष्ट कर दो |
संकलित द्वारा:
देवांशु कश्यप