हाँ मैं कोई सिकन्दर तो नहीं... ग़ुमनाम

by sanchit on September 30, 2016, 03:25:42 PM
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sanchit
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# 68.

कलम रुकी सी है, ज़ुबाँ ये, ख़ामोश क्यूँ है,
हिस्से में तेरे प्यार का कोई, बवंडर तो नहीं,

अश्क़ ये, पलकों पे आते नहीं... रुके क्यूँ हैं,
सीने में जज़्बात का सूख़ा, समन्दर तो नहीं,

मोड़ दे रुख़ ए तूफ़ाँ, साहिल से जुदा क्यूँ है,
दिल की मगर किश्ती का  पता, कहीं... भँवर तो नहीं,

नही तेरी किस्मत ग़र, उस से मुहब्बत क्यूँ है,
तू भी कहीं आशिक़ी का कोई, धुरंधर तो नहीं,

ऐ शब ए वस्ल, शब कोई मिलने तो आ, दूर क्यूँ है,
तेरी भी फ़ितरत आदमी सी मस्त... कलन्दर तो नहीं,

मैं सोचता हूँ हाल ए दिल तेरा अक़्सर, पूछता क्यूँ है,
मुहब्बत में तेरी ही हारा हूँ ग़ुमनाम, सिकन्दर तो नहीं...

                               हाँ मैं कोई सिकन्दर तो नहीं... ग़ुमनाम

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surindarn
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«Reply #1 on: September 30, 2016, 06:58:31 PM »
bahut khoob waah waah.
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sanchit
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«Reply #2 on: October 01, 2016, 04:37:01 AM »
bahut khoob waah waah.
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bahut shukriya surindar ji
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adil bechain
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«Reply #3 on: October 03, 2016, 10:20:15 AM »

# 68.

dikhtaa khush-haal koi manzar to nahin...,
shaayad   dard   koi   andar  to nahin...,

 
कलम रुकी सी है, ज़ुबाँ ये, ख़ामोश क्यूँ है,
हिस्से में तेरे प्यार का कोई, बवंडर तो नहीं,

अश्क़ ये, पलकों पे आते नहीं... रुके क्यूँ हैं,
सीने में जज़्बात का सूख़ा, समन्दर तो नहीं,

मोड़ दे रुख़ ए तूफ़ाँ, साहिल से जुदा क्यूँ है,
दिल की मगर किश्ती का  पता, कहीं... भँवर तो नहीं,

नही तेरी किस्मत ग़र, उस से मुहब्बत क्यूँ है,
तू भी कहीं आशिक़ी का कोई, धुरंधर तो नहीं,

ऐ शब ए वस्ल, शब कोई मिलने तो आ, दूर क्यूँ है,
तेरी भी फ़ितरत आदमी सी मस्त... कलन्दर तो नहीं,

मैं सोचता हूँ हाल ए दिल तेरा अक़्सर, पूछता क्यूँ है,
मुहब्बत में तेरी ही हारा हूँ ग़ुमनाम, सिकन्दर तो नहीं...

                               हाँ मैं कोई सिकन्दर तो नहीं... ग़ुमनाम






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sanchit
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«Reply #4 on: October 03, 2016, 11:11:07 AM »
Adil ji bahut bahut shukriya... aur sher to aapne bhi kamaal likha hai janab...
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«Reply #5 on: October 04, 2016, 10:27:59 AM »
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sanchit
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«Reply #6 on: October 04, 2016, 04:06:52 PM »
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shukriya rakesh ji...
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«Reply #7 on: November 05, 2016, 10:51:53 AM »
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sanchit
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«Reply #8 on: November 17, 2016, 08:41:31 PM »
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Sabnam Khan
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«Reply #9 on: January 10, 2017, 05:35:09 AM »
दिन रात के देखे हुए मंज़र से अलग है
ये लम्हा तो मौजूद ओ मयस्सर से अलग है
मौजें कि बगूले हों मिरे दिल का हर इक रंग
सहरा है जुदा और समुंदर से अलग है
वो शय कि लगे जिस से मिरी रूह पे ये ज़ख़्म
वाक़िफ़ ही नहीं तू तिरे ख़ंजर से अलग है
पोशीदा नहीं मुझ से ये दुनिया की हक़ीक़त
बाहर से मिरे साथ है अंदर से अलग है
इक रंग बरसता ही रहा मुझ पे अगरचे
मालूम था वो मेरे मुक़द्दर से अलग है
तुझ को नहीं मालूम हुए जिस पे फ़िदा हम
है और ही कुछ जो तिरे पैकर से अलग है
उस चश्म-ए-करम ने मुझे बख़्शा जो ख़ज़ीना
अन-मोल है वो और ज़र-ओ-गौहर से अलग है
उस शख़्स की उल्फ़त ने फिर इक रोज़ बताया
क़िस्मत मिरी दारा-ओ-सिकन्दर से अलग है
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