journalist sandeep
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मोती हो कि शीशा, जाम कि दुरजो टूट गया सो टूट गयाकब अश्कों से जुड़ सकता हैजो टूट गया, सो छूट गया तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर दामन में छुपाए बैठे हो शीशों का मसीहा कोई नहींक्या आस लगाए बैठे हो शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहींवो साग़रे-दिल है जिसमें कभीसद नाज़ से उतरा करती थीसहबाए-गमें-जानां की परी फिर दुनिया वालों ने तुम सेये सागर लेकर फोड़ दियाजो मय थी बहा दी मिट्टी मेंमेहमान का शहपर तोड़ दिया ये रंगी रेजे हैं शाहिदउन शोख बिल्लूरी सपनों केतुम मस्त जवानी में जिन सेखल्वत को सजाया करते थे नादारी, दफ्तर, भूख और गमइन सपनों से टकराते रहेबेरहम था चौमुख पथराओये कांच के ढ़ांचे क्या करते या शायद इन जर्रों में कहींमोती है तुम्हारी इज्जत कावो जिस से तुम्हारे इज्ज़ पे भीशमशादक़दों ने नाज़ किया उस माल की धुन में फिरते थेताजिर भी बहुत रहजन भी बहुतहै चोरनगर, यां मुफलिस कीगर जान बची तो आन गई ये सागर शीशे, लालो- गुहरसालम हो तो कीमत पाते हैंयूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फकतचुभते हैं, लहू रुलवाते हैं तुम नाहक टुकड़े चुन चुन करदामन में छुपाए बैठे होशीशों का मसीहा कोई नहींक्या आस लगाए बैठे हो यादों के गरेबानों के रफ़ूपर दिल की गुज़र कब होती हैइक बखिया उधेड़ा, एक सियायूँ उम्र बसर कब होती है इस कारगहे-हस्ती में जहाँये सागर शीशे ढ़लते हैंहर शै का बदल मिल सकता हैसब दामन पुर हो सकते हैं जो हाथ बढ़े यावर है यहाँजो आंख उठे वो बख़्तावर यां धन दौलत का अंत नहींहों घात में डाकू लाख यहाँ कब लूट झपट में हस्ती कीदुकानें खाली होती हैंयां परबत परबत हीरे हैंया सागर सागर मोती है कुछ लोग हैं जो इस दौलत परपर्दे लटकाया फिरते हैंहर परबत को हर सागर कोनीलाम चढ़ाते फिरते हैं कुछ वो भी हैं जो लड़ भिड़ करये पर्दे नोच गिराते हैंहस्ती के उठाईगीरों कीहर चाल उलझाए जाते हैं इन दोनों में रन पड़ता हैनित बस्ती बस्ती नगर नगरहर बसते घर के सीने मेंहर चलती राह के माथे पर ये कालक भरते फिरते हैंवो जोत जगाते रहते हैंये आग लगाते फिरते हैंवो आग बुझाते रहते हैं सब सागर शीशे, लालो-गुहरइस बाज़ी में बिद जाते हैंउठो, सब ख़ाली हाथों कोइस रन से बुलावे आते हैं
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